अष्टावक्र गीता भूमिका

विश्वामित्र द्वारा राम को अलभ्य अस्त्रों का दान ( बालकाण्ड )

अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का ग्रन्थ है जो ऋषि अष्टावक्र और राजा जनक के संवाद के रूप में है। भगवद्गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र के सामान अष्टावक्र गीता अमूल्य ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में ज्ञान, वैराग्य, मुक्ति और समाधिस्थ योगी की दशा का सविस्तार वर्णन है।

इस पुस्तक के बारे में किंवदंती है कि रामकृष्ण परमहंस ने भी यही पुस्तक नरेंद्र को पढ़ने को कहा था जिसके पश्चात वे उनके शिष्य बने और कालांतर में स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए।

इस ग्रंथ का प्रारम्भ राजा जनक द्वारा किये गए तीन प्रश्नों से होता है।

(१) ज्ञान कैसे प्राप्त होता है?
(२) मुक्ति कैसे होगी? और
(३) वैराग्य कैसे प्राप्त होगा?

ये तीन शाश्वत प्रश्न हैं जो हर काल में आत्मानुसंधानियों द्वारा पूछे जाते रहे हैं। ऋषि अष्टावक्र ने इन्हीं तीन प्रश्नों का संधान राजा जनक के साथ संवाद के रूप में किया है जो अष्टावक्र गीता के रूप में प्रचलित है। ये सूत्र आत्मज्ञान के सबसे सीधे और सरल वक्तव्य हैं। इनमें एक ही पथ प्रदर्शित किया गया है जो है ज्ञान का मार्ग। ये सूत्र ज्ञानोपलब्धि के, ज्ञानी के अनुभव के सूत्र हैं। स्वयं को केवल जानना है—ज्ञानदर्शी होना, बस। कोई आडम्बर नहीं, आयोजन नहीं, यातना नहीं, यत्न नहीं, बस हो जाना वही जो हो। इसलिए इन सूत्रों की केवल एक ही व्याख्या हो सकती है, मत मतान्तर का कोई झमेला नहीं है; पाण्डित्य और पोंगापंथी की कोई गुंजाइश नहीं है।

भारतीय पौराणिक साहित्य भंडार में एक-से-एक अप्रतिम बहुमूल्य रत्‍न भरे पड़े हैं। अष्‍टावक्र गीता अध्यात्म का शिरोमणि ग्रंथ है। इसकी तुलना किसी अन्य ग्रंथ से नहीं की जा सकती।

अष्‍टावक्रजी बुद्धपुरुष थे, जिनका नाम अध्यात्म-जगत् में आदर एवं सम्मान के साथ लिया जाता है। कहा जाता है कि जब वे अपनी माता के गर्भ में थे, उस समय उनके पिताजी वेद-पाठ कर रहे थे, तब उन्होंने गर्भ से ही पिता को टोक दिया था—’शास्‍‍त्रों में ज्ञान कहाँ है? ज्ञान तो स्वयं के भीतर है! सत्य शास्‍‍त्रों में नहीं, स्वयं में है।’ यह सुनकर पिता ने गर्भस्थ शिशु को शाप दे दिया, ‘तू आठ अंगों से टेढ़ा-मेढ़ा एवं कुरूप होगा।’ इसीलिए उनका नाम ‘अष्‍टावक्र‘ पड़ा।

अष्‍टावक्र गीता‘ में अष्‍टावक्रजी के एक-से-एक अनूठे वक्‍तव्य हैं। ये कोई सैद्धांतिक वक्‍तव्य नहीं हैं, बल्कि प्रयोगसिद्ध वैज्ञानिक सत्य हैं, जिनको उन्हेंने विदेह जनक पर प्रयोग करके सत्य सिद्ध कर दिखाया था। राजा जनक ने बारह वर्षीय अष्‍टावक्रजी को अपने सिंहासन पर बैठाया और स्वयं उनके चरणों में बैठकर शिष्य-भाव से अपनी जिज्ञासाओं का शमन कराया। यही शंका-समाधान अष्‍टावक्र संवाद रूप में ‘अष्‍टावक्र गीता‘ में समाहित है। ज्ञान-पिपासु एवं अध्यात्म-जिज्ञासु पाठकों के लिए एक श्रेष्‍ठ, पठनीय एवं संग्रहणीय आध्यात्मिक ग्रंथ।

अष्टावक्र गीता ज्ञान योग की सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तकों में से एक है जिसकी प्रशंसा श्री रामकृष्ण परमहंस और श्री रमण महर्षि ने भी की है। जैसे गीता में श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है वैसे ही अष्टावक्र गीता के श्रोता श्री जनक और वक्ता श्री अष्टावक्र जी हैं। गीता में कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनों का वर्णन हुआ है पर अष्टावक्र गीता में केवल ज्ञान योग का ही विवेचन हुआ है।

अष्टावक्र के नाना ऋषि उद्दालक का छान्दोग्य उपनिषद् में एक ब्रह्मज्ञानी के रूप में उल्लेख किया गया है। वेदांत के सबसे महत्त्वपूर्ण महावाक्य तत्त्वमसि का उपदेश इनके नाना उद्दालक के द्वारा इनके मामा श्वेतकेतु को दिया गया है जो अष्टावक्र के समवयस्क हैं, अतः अष्टावक्र उपनिषद् कालीन ऋषि हैं।

वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्डमें अष्टावक्र ऋषि का बड़े आदर से उल्लेख हुआ है। रावण वध के पश्चात्, देवराज इंद्र के साथ राजा दशरथ अपने प्रिय पुत्र श्रीराम से मिलने आते हैं, उस समय वे श्रीराम से कहते हैं–”हे महात्मा राम तुम्हारे जैसे सुपुत्र के द्वारा मैं वैसे ही बचा लिया गया हूँ जैसे कि धर्मात्मा कहोड ब्राह्मण अपने पुत्र अष्टावक्र के द्वारा।

महाभारत के वन पर्व में लोमश ऋषि युधिष्ठिर को अष्टावक्र की कथा सुनाते हैं।

अष्टावक्र और बंदी विद्वान ब्राह्मण के बीच अद्भुत शास्त्रार्थ

अष्टावक्र गीता कि यह वो घटना है ज़ब तथाकथित एक बड़े ज्ञानी अथवा पंडित “बंदी” का सामना सीधे सीधे अष्टावक्र से हुआ.

ये बंदी वहीं थे जो राजा जनक के दरबार मे काफ़ी प्रचलित थे, इन्हे उपनिषदों एवं शास्त्रों का ज्ञान भली भाती था..
और ये वहीं पंडित थे जिन्होंने अष्टावक्र के पिता कोहोड को शास्त्रार्थ मे हरा दिया था. और शास्त्रार्थ मे पराजित होने के बाद कि शर्त यह थीं कि जो व्यक्ति शास्त्रार्थ मे पराजित होगा उसको जल समाधि लेनी होगी..

तो इन सब शर्तो को ध्यान मे रखते हुए ज्ञानी पंडित बंदी और कोहोड के बीच मे शास्त्रार्थ हुआ जिसमे बंदी जीत गया…. और कोहोड को शर्त के अनुसार जलसमाधि लेनी पड़ी थीं.. जब अष्टावक्र को इन सब बातो का पता चला तो… अष्टावक्र ने बंदी कि इस शर्त को गलत माना..

जिसके चलते अष्टावक्र ने बहुत ज्ञान हासिल किया. अष्टावक्र अपने पिता के एक भयंकर श्राप की वजह से शरीर के आठ जगहों से टेढ़ा ही पैदा हुआ था, इसलिए उनके पिता ने उनका नाम अष्टावक्र रख दिया था.
कुछ सालों बाद एक दिन पंडित “बंदी” का सामना कोहोड के बेटे अष्टावक्र से हुआ..

अष्टावक्र ने पंडित “बंदी” को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा
दोनों के बीच शास्त्रार्थ शुरू हुआ, देखते ही देखते लोगो का हुजूम जमा हो गया..

बंदी ने सबसे पहला सवाल पुछा – प्रपंच क्या है?
अष्टावक्र ने जवाब दिया – जो कुछ दिखाई देता है जो भी कुछ, वह सब प्रपंच है…

अब अष्टावक्र ने पुछा कि जो दिखता है उसका तात्यपर्य क्या है?
बंदी कहता है – जो दृष्टिगोचर है मन और इन्द्रियों का विषय है, जिसे मै स्वयं जानता हु वहीं दृश्य है.

अब बंदी पूछता है अष्टावक्र से, जो दृष्टा है उसे कौन जानता है.? तथा स्वयं को कौन देखता है?

अष्टावक्र ने जवाब दिया – उस आत्म को देखने कि जरुरत नहीं पड़ती जिस प्रकार सूर्य को देखने के लिए किसी दूसरे प्रकाश कि आवश्यकता नहीं पड़ती, वह स्वयं प्रकाशमान है..

अब अष्टावक्र ने पुछा यह संसार कहाँ से और कैसे आया?
बंदी ने कहा– यह श्रिष्टि उससे सिर्फ उससे आई है,

इतने मे बंदी पूछता है कि वो कौन है, जिससे यह श्रिस्टी उत्तपन्न हुई. या जिसने बनाया है?

अष्टावक्र बोलते है वह ब्रह्म है वहीं अपनी माया से इस संसार को रचता है वहीं श्रिष्टि का रचैता, पालनहार, और संहारकर्ता है.

अष्टावक्र ने सवाल पुछा – ब्रम्हा इस संसार कि रचना, पालन, और संघर्ष कैसे करता है?

बंदी कहता है जिस प्रकार मकड़ी अपने जाल को बुनती है उसी मे विचरण करती है और फिर उसी को निगल जाती है ठीक उसी प्रकार ईश्वर इस संसार कि रचना पालन और संघार करता है.

अब बंदी पूछता है ये जीव क्या है?

अष्टावक्र बोलता है – “जीव” यह आत्मा है, वह निर्विकार स्वयं है परन्तु अविद्या और अज्ञानता के प्रभाव मे आकर वह स्वयं को मन और शरीर समझ बैठता है.. और इसी वजह से ही वह इस संसार का अनुभव भी कर रहा होता है..
अब अष्टावक्र पूछते है – यह अविद्या क्या है?

बंदी कहते है – आत्मा को आत्मा समझना, निर्विकार को विकारयुक्त समझना, और इस संसार को ही सत्य समझना यही अविद्या है..

अब ज्ञानी बंदी ने सवाल पुछा – ये विद्या क्या है?

अष्टावक्र कहते है – ये आत्मा का ज्ञान ही विद्या है “सः विद्याये या विमुक्ते” ऐसा ज्ञान जो जो हमें सारे दुखो, पीड़ा, अज्ञान, प्रतियोगिताओ, ब्रह्मऔर ब्राम्हण कल्पनाओ से मुक्ति दिलाए,..

जो हमें द्वैध के भाव से हम दो अलग अलग है के भाव से, अलगाव के विचार से, ईर्षा भाव से, तुम और मैं के भेद से मुक्ति दिलाए वो ज्ञान है.

पहला मार्ग यह जानना कि ब्रह्म क्या नहीं है?

जो ब्रह्म नहीं है उसका निषेध करना, सब नाम रूप गुण, और परिवर्तन शील वस्तुओ का निषेध कर निर्विकार को जानना और

दूसरा मार्ग सत्य जैसा है उसे बिलकुल वैसा ही पहचानना और वह अस्तित्व रूप है उसके बिना संसार का अस्तित्व ही नहीं है.

वह ब्रह्म ही था ब्रह्म ही है और इसलिए मैं ब्रह्म हु तुम ब्रह्म हो और सब ब्रह्म है.
अब अष्टावक्र ने पुछा – ब्रह्म को कैसे जाना जा सकता है?

बंदी ने कहा – ब्रह्म को सही सामाजिक व्यवहार आध्यात्मिक चिंतन, ध्यानपूर्वक सुनने, नित्य अनुभवों पर विचार करने, और निष्कर्षो पर मनन करने तथा समाधी मे जा कर जाना जा सकता है.

बंदी से सवाल पुछा – “ब्रह्म ज्ञानी के लक्षण क्या है?

अष्टावक्र बोला – यदि कोई दावा करता है कि उसने ब्रह्म को जान लिया है तो समझो वो ब्रह्म को नहीं जानता, क्योंकि ब्रह्म को जानने के साथ ही ब्रह्म को जानने का अहंकार ही मिट जाता है.

बंदी ने फिर सवाल पुछा कि क्या उसे तर्क से जाना जा सकता है?

अष्टावक्र बोले – नहीं, परन्तु तर्क सहायक हो सकते है.

इस पर अष्टावक्र ने पूछा कि क्या उसे प्रार्थना और भक्ति से जाना जा सकता है?

बंदी बोले – “नहीं” मगर प्रार्थना और भक्ति सहायक हो सकते है..

बंदी ने बोला – क्या उसे योग और मनन से जाना जा सकता है?

अष्टावक्र बोले – “नहीं” परन्तु योग और मनन सहायक हो सकते है.

अब ऐसे मे बंदी और अष्टावक्र के बीच जबरदस्त शास्त्रार्थ चल रहा था तभी अचानक बंदी निरुत्तर हो गया… कोई सवाल ना पूछ पाया…

इस तरह महाज्ञानी बंदी शास्त्रार्थ मे अष्टावक्र से पराजित हो गया..

उसने अपनी हार स्वीकार कर ली..

इसी के साथ अष्टावक्र कि जय जय कर होने लगी….

इधर बंदी बोलते है शर्त के अनुसार मैं जल समाधी लेने जा रहा हु..

तभी अष्टावक्र बड़े ही विनम्र भाव से बोलते है, मैं आपको जल समाधी देने नहीं आया हु..

आपको याद होगा कि आपकी इस शर्त कि वजह से ना जाने कितने निर्दोष विद्वानों कि जान गई है..

आचार्य बंदी, याद करो वो दिन ज़ब अपने आचार्य कोहोड को शास्त्रार्थ मे पराजित कर दिया था.. और मैं उन्ही आचार्य कोहोड का पुत्र हूं.

उस दिन वह पराजित थे और आज तुम पराजित हो. और मैं विजय हूं.

मैं चाहू तो तुम्हे जाल समाधी दे सकता हूं..

परन्तु मे ऐसा नहीं करूंगा आचार्य. ये क्षमा ही मेरा प्रतिशोध है. इसलिए मे आपको क्षमा करता हु आचार्य बंदी.

आचार्य बंदी कहते है… हे बाल ज्ञानी तुमने तो प्राण लेने से भी बड़ा दंड दे दिया है मुझे..

इसके बाद अष्टावक्र कहते है..
“शास्त्र को शस्त्र मत बनाओ शास्त्र जीवन का विकास करती है.. और शस्त्र जीवन का नाश करती है..

जितना पुराना है हिमालय, जितनी पुरानी है ये गंगा. उतना ही पुराना यह सत्य है. हिंसा से कभी भी किसी ने किसी को नहीं जीता..

मित्रों , अष्टावक्र के वो सभी शब्द परम ज्ञान कि तरफ इशारा करते है यदि आप भी अष्टावक्र द्वारा की गई बातो पर ध्यान देंगे, चिंतन करेंगे तो आपको परम ज्ञान कि अनुभूति होगी..

एक मतानुसार बात इस तरह से प्रचलित है । राजा जनक ने पता कराया के पूर्ण ज्ञान के लिये वो किस को गुरु बनाये। तो उन्होंने अष्टावक्र का नाम सुना और वो उन से जब मिलने उन की कुटिया में गये। तो राजा जनक ने बोला क्या वो उन्हें पल में ज्ञान करा सकते है । अष्टावक्र जी ने बोला कल मै आपके महल मे आ कर ज्ञान दूँगा।

अगले दिन राजा जनक ने अपने रिश्तेदारों दोस्तो और प्रजा को अपने महल मे न्योता और एक स्टेज पर दो कुर्सियां लगवाई । एक कुर्सी पर वो खुद बैठ के इंतजार करने लगे । जब अष्टावक्र जी सभा मे आये तो सब उनके टेढ़े शरीर पे पड़ने वाले बलो को देख कर हँसने लगे ।यानी थोड़े हीन भाव से उनको देख समझ रहे थे। उसपर अष्टावक्र जी बोले के राजा आप तो बोल रहे थे ज्ञान चाहिए पर यहाँ तो सब चमड़े के व्यापारी इकट्ठा किये हुए है ।

इस पर राजा जनक ने बोला वो कैसे

अष्टावक्र जी बोले ये सब मेरे चमड़े से ही परख रहे है मेरे ज्ञान से नही । इसपर राजा जनक जी को अष्टावक्र जी पर और विश्वास हुआ और उन्होंने उन्हें सम्मान से अपने साथ मंच पर कुर्सी पर बिठाया। फिर अष्टावक्र जी ने पूछा राजा ज्ञान पल मे चाहिए तो राजा जनक ने बोला जी पल मे ।

अष्टावक्र जी ने कहा ज्ञान पल मे ही हो जायेगा पर आप को अपना तन मन धन मुझे सौपना होगा । राजा जनक सहमत होगये। तो अष्टावक्र बोले आपके महल के बाहर मैंने अपनी जूतियां उतारी है जाओ वह बैठो

सारी सभा मे बातें होने लगी के राजा जूतों में बैठेगे। अष्टावक्र जी ने बोला राजा तन अब मेरा है। तुम्हारा नही राजा जनक जूतों की और चल पड़े तो सोचने लगे के लोग क्या सोचेगे ।

अष्टावक्र जी ने आवाज लगाई । राजा ये मन भी मेरा है इससे तुम मत सोचो के लोग क्या सोचते है। इस पर राजा जनक ने कहा हा मैं मन भी दे चुका हूँ तो सोचना क्या ।

इस पर अष्टावक्र जी ने आवाज लगा कर बोला ज्ञान तो राजा पल मे भी मिल जाता है पर उस के लिए समर्पण भी इतना होना चाहिये।

अष्टावक्र जी ने वहाँ पल मे राजा जनक जी को पूर्ण ज्ञान भी दिया और कहा आज के बाद आपने इस तन मन और राज-पाट का प्रयोग ये सोच कर करना है के ये तुम्हारे नही । उसके बाद राजा जनक ने राज-पाट राजा के साथ साथ एक ऋषि की तरहा चलाया। अष्टावक्र जी को अपना गुरू माना

ये तो हम सभी को ज्ञात है कि मिथिला के सभी राजाओं को जनक कहा जाता था। उनमें से एक राजा जनक, जिनको आत्मज्ञान होने से पहले वे एक पंडित के द्वारा शास्त्रों का ज्ञान ले रहे थे, पंडित ने एक पद पढ़ा –

“घोड़े की एक रकाब में पैर डालने के बाद में दूसरा पैर डालने में जो समय लगता है केवल मात्र उतने समय में ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है।”

यह सुनते ही राजा जनक ने पुछा कि क्या यह बात सत्य है। पंडित ने कहा कि ये पूर्णतया सत्य है और इसमें कोई संदेह नहीं किया जा सकता। राजा ने तुरंत अपना घोडा मंगवाया ताकि शास्त्रों की सत्यता को रखा जा सके और यदि ऐसा नहीं हुआ तो पंडित को इसका उत्तरदायी ठहराया जाये। पंडित ने कहा कि वह सिद्ध तो नहीं कर सकता परन्तु शास्त्रों में लिखी कोई भी बात गलत नहीं होती इस बात पर वह पूर्ण रूप से विश्वास करता है और राजा को भी करना चाहिए।

इस पर राजा ने उसे बंदी बनाकर कैद करवा दिया और उसके बाद राज्य से बहुत से पंडितों को बुलवाया और कहा कि या तो इसे सिद्ध करो या फिर शास्त्रों में से इस बात को हटाकर शास्त्रों को सही करो क्योंकि शास्त्रों में कोई गलत बात नहीं होनी चाहिए। इस पर सभी पंडितों का एक ही उत्तर था कि शास्त्रों में लिखा है तो सत्य ही है परन्तु सिद्ध नहीं कर सकते। इस पर राजा ने उन सभी को भी कैद करवा दिया।

राजा जनक ने पड़ोसी राज्यों में रहने वाले सभी पंडितों को भी ये सूचना भिजवाई परन्तु कोई भी इस बात को सिद्ध करने में समर्थ नहीं था। अतः बहुत से पंडित तो कैद होने के डर से मिथिला राज्य में आने से भी कतराने लगे।

थोड़े दिन बीत जाने के बाद मुनि अष्टावक्र मिथिला राज्य के पास से गुजरे, विश्राम के उद्देश्य से उन्होंने एक वृक्ष की छाँव में आश्रय लिया। कुछ समय में वहां से दो पंडित गुजरे तो मुनिवर ने उन्हें मिथिला के राजा के बारे में पुछा और मिलने की अभिलाषा जतायी। इस पर पंडितों ने उन्हें बताया कि कोई भी पंडित या साधु राजा के पास नहीं जाना चाहते क्योंकि राजा जाते ही एक ही प्रश्न पुछते हैं – “क्या तुम ये सिद्ध कर सकते हो कि घोड़े की रकाब में एक पैर रखने के बाद दूसरा पैर रखने जितने समय में आत्मज्ञान की प्राप्ति हो सकती है?”और सिद्ध न कर पाने की अवस्था में राजा उन्हें कैद में डाल देता है।

यह सुनने पर अष्टावक्र जी ने कहा कि यह तो गलत बात है और पुछा यदि दोनों पंडित उन्हें एक पालकी में बैठाकर राजा के समक्ष ले जा सकते हैं क्या? दोनों पंडित मुनिवर की बात मान गए और पालकी में बैठाकर मुनिवर अष्टावक्र जी को राजा के दरबार में राजा के समक्ष ले गए। मुनिवर के मुख का तेज देखकर राजा ने तुरंत अपने आशन से उठकर उनका स्वागत किया और तुरंत उनके सामने साष्टांग दंडवत हो गए। दंडवत मुद्रा में ही राजा ने मुनिवर से उनके आने का उद्देश्य पुछा और आग्रह किया यदि उनके लिए कुछ कर सकें।

मुनि अष्टावक्र ने पुछा कि राजा आपने सभी पंडितों को कारागृह में क्यों डाल दिया? इस पर राजा ने सारी स्थिति से मुनिवर को अवगत करवाया। जिसके बाद मुनिवर ने राजा से कहा कि शास्त्रों की बात पर संदेह नहीं किया जा सकता उनमें जो भी लिखा है सभी कुछ शत-प्रतिशत सत्य है। राजा ने मुनिवर से इसे सिद्ध करने का आग्रह किया और घोड़ा मंगवाने के लिए आज्ञा मांगी। तब अष्टावक्र जी ने राजा से कहा कि क्योंकि उनकी अभिलाषा सच्ची और सही है अतः वह अवश्य ही इस बात को सही सिद्ध करके शास्त्रों की सत्यता का प्रमाण देंगे। परन्तु उससे पूर्व आपको सभी पंडितों को कारागृह से मुक्त करना होगा और घोड़े की पीठ पर बैठकर वन में चलना होगा। राजा जनक ने मुनिवर की बात मान ली और वन के लिए प्रस्थान को तैयार हो गए। मुनिवर वापस अपनी पालकी में बैठ गए और सभी ने वन के लिए प्रस्थान किया।

वन में पहुंचकर मुनिवर एक बरगद के पेड़ के नीचे रुके और राजा से कहा कि अपने साथ में आये सभी सिपाहियों तथा मंत्रीगणों को वापस लौटा दे क्योंकि उपदेश तो राजा को लेना है फिर इन सब का यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है। राजा ज्ञान प्राप्ति के लिए बहुत अधिक व्याकुल थे सो उन्होंने तुरंत ही सभी को वापस राज्य लौटने का आदेश दिया। सभी के लौटने के बाद राजा ने मुनिवर से आज्ञा ली और एक पैर घोड़े की रकाब पर रखा और दूसरा पैर रखने के लिए मुनिवर के आदेश की प्रतीक्षा करने लगे।

मुनिवर ने राजा को रोका और कहा कि क्या शास्त्र में सिर्फ यही लिखा था कि आत्मज्ञान की प्राप्ति घोड़े की रकाब में पहला पैर रखने के बाद दूसरा पैर रखने जितने समय में हो जाती है या इसके अलावा भी कुछ लिखा था। इस पर राजा ने कहा बहुत सी और भी बातें लिखी थी। मुनिवर ने पूछा क्या उसमे लिखा था की आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए एक गुरु भी आवश्यक है? इस पर राजा ने हाँ कहा। मुनिवर ने पुनः पूछा कि यदि ऐसा है तो फिर आपने मुझे गुरु माने बिना मुझसे दीक्षा के लिए क्यों कहा?

तब राजा ने शास्त्रानुसार अष्टावक्र जी को अपना गुरु मान लिया। अष्टावक्र जी ने राजा से गुरु दक्षिणा के लिए कहा। इस पर राजा राजी हो गए। तब अष्टावक्र जी ने कहा कि मुझे गुरु दक्षिणा में आपका शरीर, मन, सारी संपत्ति और जो कुछ भी इस संसार में आपके पास है चाहिए। जैसे ही ये शब्द राजा ने सुने अष्टावक्र जी जाकर पास की झाड़ियों में छुप गए। राजा बिना किसी हलचल के अपना एक पैर घोड़े की रकाब में रखे मूर्ति समान वहां खड़े थे। सूर्यास्त होने लगा और राजा के महल नहीं लौटने पर मंत्रीगण चिंतित हो गए। तुरंत कुछ सिपाही और मंत्रीगण राजा को ढूंढने वन में पहुंचे और देखा की राजा तो मूर्तिवत खड़े हैं और अष्टावक्र जी कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे। सभी मंत्रियों ने सोचा जरूर अष्टावक्र जी ने ही कुछ कर दिया है राजा को। राजा को महल लाया गया परन्तु महल आने पर भी राजा उसी अवस्था में रहे।

राजा की इस स्थिति को देखकर सभी काफी चिंता में थे तभी रानी ने आदेश दिया कि जाकर अष्टावक्र जी को ढूंढकर लाया जाये क्योंकि अगर राजा का ये हाल उन्ही के कारण है तो वही इसे पुनः सही कर पाएंगे। इस पर अष्टावक्र जी की तलाश शुरू हुयी। क्योंकि राजा न कुछ खा रहे थे न ही एक शब्द बोल रहे थे।

दूसरे दिन सूर्यास्त के समय एक नौकर मुनिवर को लेकर उनकी पालकी में महल पहुंचा। मुनिवर को देखते ही मंत्रीगणों को बहुत क्रोध आया परन्तु कहीं काम बिगड़ न जाये इस डर से उन्होंने क्रोध को व्यक्त नहीं होने दिया क्योंकि केवल मात्र मुनि अष्टावक्र जी ही राजा को ठीक कर सकते थे।

मुनिवर ने जैसे ही राजा के पास जाकर कहा “राजा!” राजा तुरंत खड़े हुए और बोले, “क्या आदेश है स्वामी? क्या मैंने आपके विरुद्ध कुछ किया?” मुनिवर बोले, “किसने कहा कि आपने मेरे विरुद्ध कुछ किया? आपने कुछ नहीं किया। सब ठीक है। उठो और खाना खाओ।” राजा उठे खाना खाया और पुनः अचल बैठ गए।

इस पर मंत्रियों ने कहा मुनिवर हम पर दया करें और राजा को पुनः पहले जैसे कर दें। मुनिवर ने मंत्रियों को राजा को ठीक करने वचन दिया और उन्हें बाहर जाने को कहा। तत्पश्चात मुनिवर ने द्वार भीतर से बंद कर दिए। तुरंत ही राजा ने कहा, “स्वामी मेरा मेरे शरीर पर कोई नियंत्रण नहीं रहा गया है। मेरा राज्य मेरा नहीं रह गया है। मेरे हाथ, पैर और सभी इन्द्रियां भी मेरे बस में नहीं हैं मैंने सच्चे हृदय से सब कुछ आपके सुपुर्द कर दिया है। इसी कारण मैं इस अवस्था में हूँ।”

इस तरह के सत्य और समर्पण से भरे शब्द सुनकर मुनिवर प्रसन्न और संतुष्ट हुए और राजा के सिर पर हाथ रखकर बोले, “हे राजन मुझे तुम्हे यह प्राथमिक उपचार देना पड़ा ताकि मैं ये जान सकूँ कि तुम मुक्ति के योग्य हो या नहीं। तुम अब उपदेश लेने योग्य शिष्य बन गए हो। अब तुम ब्रह्म स्वरुप हो गए हो, एक मुक्त आत्मा जिसने वो सब कर लिया जो करना चाहिए था, वो सब ग्रहण कर लिया जो ग्रहण करना चाहिए था।”

राजा ने पूछा, “हे स्वामी, मुझे बताएं कि कैसे ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, कैसे मुक्ति को प्राप्त किया जा सकता है और कैसे वैराग्य की प्राप्ति हो सकती है?”

इसी प्रकार से राजा और मुनि अष्टावक्र जी के बीच की इस पूरी वार्तालाप को “अष्टावक्र गीता” कहा जाता है जिसमे संपूर्ण उपदेश राजा और मुनिवर के प्रश्न और उत्तरों के रूप में संगृहीत हैं।

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