पांडवों का वनवास और अज्ञातवास
पाण्डवों के दूत के रूप श्रीकृष्ण
जब पांडवों का वनवास और अज्ञातवास समाप्त हो गया तब श्रीकृष्ण ने इस विनाशकारी युद्घ को टालने के लिए विराट नगरी से पाण्डवों के दूत के रूप में चलकर हस्तिनापुर की सभा में आकर पांडवों के लिए दुर्योधन से पांच गांव मांगे।
लेकिन जब दुर्योधन ने कह दिया कि बिना युद्ध के तो सुई की नोंक के बराबर भी भूमि नहीं दी जाएगी तो श्रीकृष्ण युद्ध को अवश्यंभावी मानकर वापिस चल दिए थे।
कहते हैं कि उस समय हस्तिनापुर से बाहर बहुत दूर तक छोड़ने के लिए श्रीकृष्ण के साथ कर्ण आया था।
कुंती का ज्येष्ठ पुत्र
उस एकांत में श्रीकृष्ण ने कर्ण को बता दिया था कि वह कुंती का ज्येष्ठ पुत्र है। यह सुनकर कर्ण के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई थी।
वह आवाक् रह गया था। श्रीकृष्ण ने एक बार फिर कहा, हे कर्ण तुम कुंति के ज्येष्ठ पुत्र हो और तुम्हारे पिता सूर्यदेव हैं। इसलिए तुम्हें युद्ध में पांडवों का साथ देना चाहिए।
कर्ण को इस सत्य का पता चला तो नीतिमर्मज्ञ कर्ण ने तब नीतिकार कृष्ण को जो कुछ कहा था, वह बड़ा ही मार्मिक है और उस दानवीर के प्रति श्रद्धा का भाव पैदा करने वाला है।
उसने कहा- हे मधुसूदन मेरे और आपके बीच में जो ये गुप्त मंत्रणा हुई है, इसे आप मेरे और अपने बीच तक ही रखें क्योंकि यदि जितेन्द्रिय धर्मात्मा राजा युधिष्ठर यदि यह जान लेंगे कि मैं कुंती का बड़ा पुत्र हूं तो वे राज्य ग्रहण नहीं करेंगे।
कर्ण ने आगे कहा था कि उस अवस्था में मैं उस समृद्धशाली विशाल राज्य को पाकर भी दुर्योधन को ही सौंप दूंगा। मेरी भी यही कामना है कि इस भूमंडल के शासक युधिष्ठर ही बनें।