वाल्मीकि रामायण हिंदी भाष्य 001

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वाल्मीकि रामायण : महर्षि की अमर कृति

(भूमिका )

मानवता का निर्माण और संहार का परिहार वाल्मीकि रामायण की विषय-वस्तु से निकलने वाले दो प्रमुख तत्व हैं। इन दो बुनियादी मानव मूल्यों को अपने काव्य में प्रतिपादित करने के लिए बाल्मीकि को तमसा नदी की प्रसन्न और रमणीय जलधारा तथा क्रौंच-मिथुन के परम दारुणिक वियोग से प्रेरणा मिली थी। वाल्मीकि द्वारा प्रणीत इस महाकाव्य के मूल में ये ही दो घटनाएं आधार बनकर खड़ी होती हैं।

महाकाव्य की कलात्मक अभिव्यंजना में सर्वसमर्थ होने के कारण वाल्मीकि कभी भी उपदेशक या शिक्षक के रूप में अपनी बात नहीं कहते, बल्कि वे अपने पात्रों को अपना प्रवक्ता बना देते हैं। वे भी अपने आचरण, शब्द और विचारों के माध्यम से अपनी और अपने कवि की बात कह देते हैं। उनको भी आचरण का माध्यम ही अधिक अच्छा लगता है। इधर-उधर कभी-कभी कुछ सामान्य तथ्य और सैद्धांतिक सत्य का निरूपण पाया जाता है, परंतु वह घटनाक्रम से अपने आप उभरकर आते हैं।

कुछ आदर्श पात्र हैं, जैसे राम, भरत, लक्ष्मण, सीता, सुमित्रा, सुमंत्र, गुह, जटायु, शबरी, हनुमान आदि। ये विभिन्न मानवीय गुणों का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। उनका आचरण देखकर पाठक स्वयं सोचने लगते हैं, ‘हां’ आदर्श पुत्र हो तो ऐसा होना चाहिए, पुत्र वत्सल पिता ऐसे ही होते हैं, भाई का प्रेम, पत्नी की पति-भक्ति, स्त्री की सेवा भावना जो कभी किसी की शिकायत नहीं करती है और हमेशा दूसरों की सहायता करने में तत्पर रहती है।

बुद्धिमान और उत्साही परामर्शदायता, संकट में साथ देने वाला मित्र, सेवक जो अपनी सुविधा की अपेक्षा स्वामी की सुरक्षा पर अधिक ध्यान देता है, संत महात्मा जो परम पद को छोड़कर और किसी सुख की कामना नहीं रखता है और एक कार्यकारी समर्थ व्यक्ति जो अपने कर्तव्य का पालन समर्पित भावना और निष्ठा से करता है। इन सभी आदर्शों के प्रतिदर्श रामायण में मिलते हैं।

भगवान वाल्मीकि ने सामाजिक समरसता, मानव गौरव व भ्रातृत्व की विराट भावना का आदर्श मानव समाज को सर्वप्रथम दिया।

रामायण मुख्यतः एक पारिवारिक महाकाव्य है। इस काव्य का मूल स्वर परिवार है जो कि सामाजिक समरसता, मानव-गौरव और भ्रातृत्व की विराट भावना की बुनियाद है। इसमें तीन प्रकार के भ्रातृ-युगल दिखाई देते हैं-राम और भरत, बाली और सुग्रीव तथा रावण और विभीषण।

इसी प्रकार तीन प्रकार के जीवन-साथी हैं-राम और सीता, बाली और तारा तथा रावण और मंदोदरी। सीता-राम हृदय-संगम के आदर्श प्रतिरूप हैं। बाली और तारा में समानता कम होने पर भी समरसता बराबर है। रावण और मंदोदरी के आदर्शों में काफी अंतर होने पर भी एक-दूसरे के प्रति अनुराग, सद्भाव और सदाशय में कोई कमी नहीं है।

सीता, तारा और मंदोदरी-तीनों में से सीता सर्वाधिक पूजनीय हैं, हालांकि लौकिक दृष्टि से उनको सबसे अधिक पीड़ा सहनी पड़ी। तारा सबसे अधिक सुखी रही और मंदोदरी का स्वाभिमान सर्वोपरि है। उनका स्वभाव, व्यवहार और आदर्श संसार के समस्त स्त्री-पुरुषों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो सकते हैं।

विडंबना है कि सारा संसार सीता और राम को आदर्श दंपति मानकर उनकी पूजा करता है किंतु उनके जैसा दांपत्य जीवन किसी को भी स्वीकार्य नहीं होगा। इससे स्पष्ट होता है कि उनके दांपत्य जीवन में मानव की सहनशीलता का कितना उदात्त उन्नयन हो पाया है। पीड़ा सहने से यदि लोक कल्याण संभव है तो सहनशीलता तपस्या बन जाती है। वाल्मीकि ने अपनी कृति रामायण के माध्यम से मानव-जाति को यही संदेश दिया है।

रामायण का एक और महत्वपूर्ण पहलू है जो उसे उच्चतर भूमि पर प्रतिष्ठित करता है। यही आध्यात्मिक दृष्टि भंगिमा है। वैदिक दृष्टि और काव्य सृष्टि की क्षमता से संपन्न वाल्मीकि ने ‘रामायण’ के माध्यम से वेद का सार और वैदिक सूक्तियों का वैभव मानव-जाति तक पहुंचाया है। सुंदरकांड इस प्रकार की महत्वपूर्ण अभिव्यंजना का भंडार है। जो लोग इसकी गहराई में जाना चाहते हैं उनके लिए रामायण गहन अध्ययन का अक्षय भंडार है।

राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है
कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है।

ये पंकितयाँ उस राम-कथा के महत्त्व को समझने और आत्मसात करने के लिए प्रर्याप्त हैं, जो वाल्मीकि-रामायण का आधार है। राम-कथा की लोकप्रियता का प्रमाण विविध शैलियों में उसका प्रस्तुतीकरण होना भी है। रामकथा-प्रवचन, गायन, रामलीला, लोकगीत और नृत्य आदि कई शैलियों में आज भी प्रस्तुत की जाती है। यह रामकथा वाल्मीकि रामायण से ही गृहीत है।

अपने शोक को श्लोक में प्रकट करने वाले वाल्मीकि आदि कवि कहलाए। वे कवियों के प्रथम सृष्टि पुरुष हुए, तभी तो ‘विश्व’ जैसे संस्कृत भाषा के शब्दकोश में कवि का अर्थ ही ‘वाल्मीकि’ दिया गया है। आदि कवि वाल्मीकि की रचना ‘रामायण’ संस्कृत भाषा का पहला ‘आर्ष महाकाव्य’ माना जाता है।

इतिहास पर आधारित एवं सदाचारसंपन्न

आदर्शों का प्रतिपादन करने वाले काव्य को ‘आर्ष महाकाव्य’ कहा जाता है। वह सद्गुणों एवं सदाचारों का पोषक, धीरोदात्त, गहन आशय से परिपूर्ण, श्रवणीय छंदों से युक्त होता है। यह सर्वविदित है कि संस्कृत तमाम भारतीय भाषाओं की जननी है। अतः यह महाकाव्य तमाम भारतीय भाषाओं का पहला महाकाव्य है।_

वाल्मीकि के पूर्व रामकथा मौखिक रूप से विद्यमान थी। वाल्मीकि रामायण भी दीर्घकाल तक मौखिक रूप में रही। इस मौखिक काव्य रचना को रामपुत्र लव-कुश ने कंठस्थ किया एवं वर्षों तक उसे सुनाते रहे। राम की सभा में लव-कुश द्वारा कथा सुनाने के प्रसंग पर राम अपने भाइयों से कहते हैं- ‘ये जिस चरित्र का, काव्य का गान कर रहे हैं वह शब्दालंकार, उत्तम गुण एवं सुंदर रीति आदि से युक्त होने के कारण अत्यंत प्रभावशाली एवं अभ्युदयकारी है, ऐसा वृद्ध पुरुषों का कथन है। अतः तुम सब लोग इसे ध्यान देकर सुनो।’

भगवान राम को समर्पित दो ग्रंथ मुख्यतः लिखे गए है एक तुलसीदास द्वारा रचित ‘श्री रामचरित मानस’ और दूसरा वाल्मीकि कृत ‘रामायण’। इनके अलावा भी कुछ अन्य ग्रन्थ लिखे गए है पर इन सब में वाल्मीकि कृत रामायण को सबसे सटीक (Accurate) और प्रामाणिक माना जाता है। लेकिन बहुत कम लोग जानते है की श्री रामचरित मानस और रामायण में कुछ बातें अलग है जबकि कुछ बातें ऐसी है जिनका वर्णन केवल वाल्मीकि कृत रामायण में है।


रामायण कवि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया संस्कृत का एक अनुपम महाकाव्य है। इसके 24,000 श्लोक हिन्दू स्मृति का वह अंग हैं जिसके माध्यम से रघुवंश के राजा राम की गाथा कही गयी।

महर्षि वाल्मीकि (संछिप्त परिचय)

वाल्मीकि रामायण में स्वयं वाल्मीकि ने श्लोक संख्या ७/९३/१६, ७/९६/१८, और ७/१११/११ में लिखा है कि वे प्रचेता के पुत्र हैं। मनुस्मृति में प्रचेता को वशिष्ठ , नारद , पुलस्त्य आदि का भाई बताया गया है। बताया जाता है कि प्रचेता का एक नाम वरुण भी है और वरुण ब्रह्माजी के पुत्र थे। यह भी माना जाता है कि वाल्मीकि वरुण अर्थात् प्रचेता के 10वें पुत्र थे और उन दिनों के प्रचलन के अनुसार उनके भी दो नाम ‘अग्निशर्मा’ एवं ‘रत्नाकर’ थे।

किंवदन्ती है कि बाल्यावस्था में ही रत्नाकर को एक निःसंतान भीलनी ने चुरा लिया और प्रेमपूर्वक उनका पालन-पोषण किया। जिस वन प्रदेश में उस भीलनी का निवास था वहाँ का भील समुदाय असभ्य था और वन्य प्राणियों का आखेट एवं दस्युकर्म ही उनके लिये जीवन यापन का मुख्य साधन था। हत्या जैसा जघन्य अपराध उनके लिये सामान्य बात थी। उन्हीं क्रूर भीलों की संगति में रत्नाकर पले, बढ़े, और दस्युकर्म में लिप्त हो गये। युवा हो जाने पर रत्नाकर का विवाह उसी समुदाय की एक भीलनी से कर दिया गया और गृहस्थ जीवन में प्रवेश के बाद वे अनेक संतानों के पिता बन गये। परिवारमें वृद्धि के कारण अधिक धनोपार्जन करने के लिये वे और भी अधिक पापकर्म करने लगे।

रत्नाकर का ह्रदय परिवर्तन

एक दिन नारद ऋषि उस वन प्रदेश से गुजर रहे थे। डाकू रत्नाकर ने नारद जी से कहा कि ‘तुम्हारे पास जो कुछ है, उसे निकालकर रख दो! नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।’ देवर्षि नारद ने कहा- ‘मेरे पास इस वीणा और वस्त्र के अतिरिक्त है ही क्या? तुम लेना चाहो तो इन्हें ले सकते हो, लेकिन तुम यह क्रूर कर्म करके भयंकर पाप क्यों करते हो? देवर्षि की कोमल वाणी सुनकर वाल्मीकि का कठोर हृदय कुछ द्रवित हुआ। इन्होंने कहा- भगवान्! मेरी आजीविका का यही साधन है। इसके द्वारा मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूँ।’ देवर्षि बोले- ‘तुम जाकर पहले अपने परिवार वालों से पूछकर आओ कि वे तुम्हारे द्वारा केवल भरण-पोषण के अधिकारी हैं या तुम्हारे पाप-कर्मों में भी हिस्सा बटायेंगे। तुम्हारे लौटने तक हम कहीं नहीं जायँगे। यदि तुम्हें विश्वास न हो तो मुझे इस पेड़ से बाँध दो।’ देवर्षि को पेड़ से बाँध कर ये अपने घर गये। इन्होंने बारी-बारी से अपने कुटुम्बियों से पूछा कि ‘तुम लोग मेरे पापों में भी हिस्सा लोगे या मुझ से केवल भरण-पोषण ही चाहते हो।’ सभी ने एक स्वर में कहा कि ‘हमारा भरण-पोषण तुम्हारा कर्तव्य है। तुम कैसे धन लाते हो, यह तुम्हारे सोचने का विषय है। हम तुम्हारे पापों के हिस्सेदार नहीं बनेंगे।’

अपने कुटुम्बियों की बात सुनकर रत्नाकर के हृदय में आघात लगा। उनके ज्ञान नेत्र खुल गये। उन्होंने जल्दी से जंगल में जाकर देवर्षि के बन्धन खोले और विलाप करते हुए उनके चरणों में पड़ गये। नारद जी से रत्नाकर ने अपने पापों से उद्धार का उपाय भी पूछा। नारद जी ने उन्हें तमसा नदी के तट पर जाकर ‘राम-राम’ का जाप करने का परामर्श दिया। रत्नाकर ने वैसा ही किया परंतु वे राम शब्द को भूल जाने के कारण ‘मरा मरा’ का जाप करते हुये अखण्ड तपस्या में लीन हो गये। कई वर्षों तक कठोर तप के बाद उनके पूरे शरीर पर चींटियों ने बाँबी बना ली जिस कारण उनका नाम वाल्मीकि पड़ा। कठोर तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने इन्हें ज्ञान प्रदान किया तथा रामायण की रचना करने की आज्ञा दी। ब्रह्मा जी की कृपा से इन्हें समय से पूर्व ही रामायण की सभी घटनाओं का ज्ञान हो गया तथा उन्होंने रामायण की रचना की। कालान्तर में वे महान ऋषि बने।

एक बार महर्षि वाल्मीकि तमसा नदी के किनारे एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर महर्षि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से व्याध को शाप देते हुए एक श्लोक निकल पड़ाः

मां निषाद प्रतिष्ठां
त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम्
अवधीः काममोहितम्॥’

(अरे बहेलिये, तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी)

यह श्लोक संस्कृत भाषा में लौकिक छन्दों में प्रथम अनुष्टुप् छन्द का श्लोक था। इसी छन्द के कारण वाल्मीकि आदिकवि हुए। इसी छंद में उन्होंने नारद से सुनी राम की कथा के आधार पर रामायण की रचना की।

कथा प्रारम्भ -001

बालकाण्ड


कौशल प्रदेश, जिसकी स्थापना वैवस्वत मनु ने की थी, पवित्र सरयू नदी के तट पर स्थित है। सुन्दर एवं समृद्ध अयोध्या नगरी इस प्रदेश की राजधानी है। वैवस्वत मनु के वंश में अनेक शूरवीर, पराक्रमी, प्रतिभाशाली तथा यशस्वी राजा हुये जिनमें से राजा दशरथ भी एक थे। राजा दशरथ वेदों के मर्मज्ञ, धर्मप्राण, दयालु, रणकुशल, और प्रजापालक थे। उनके राज्य में प्रजा कष्टरहित, सत्यनिष्ठ एवं ईश्‍वरभक्‍त थी। उनके राज्य में किसी का किसी के भी प्रति द्वेषभाव का सर्वथा अभाव था।

एक दिन दर्पण में अपने कृष्णवर्ण केशों के मध्य एक श्‍वेत रंग के केश को देखकर महाराज दशरथ विचार करने लगे कि अब मेरे यौवन के दिनों का अंत निकट है और अब तक मैं निःसंतान हूँ। मेरा वंश आगे कैसे बढ़ेगा तथा किसी उत्तराधिकारी के अभाव में राज्य का क्या होगा? इस प्रकार विचार करके उन्होंने पुत्र प्राप्ति हेतु पुत्रयेष्ठि यज्ञ करने का संकल्प किया। अपने कुलगुरु वशिष्ठ जी को बुलाकर उन्होंने अपना मन्तव्य बताया तथा यज्ञ के लिये उचित विधान बताने की प्रार्थना की।.

उनके विचारों को उचित तथा युक्‍तियुक्‍त जान कर गुरु वशिष्ठ जी बोले, “हे राजन्! पुत्रयेष्ठि यज्ञ करने से अवश्य ही आपकी मनोकामना पूर्ण होगी ऐसा मेरा विश्वास है। अतः आप शीघ्रातिशीघ्र अश्‍वमेध यज्ञ करने तथा इसके लिये एक सुन्दर श्यामकर्ण अश्‍व छोड़ने की व्यवस्था करें।” गुरु वशिष्ठ की मन्त्रणा के अनुसार शीघ्र ही महाराज दशरथ ने सरयू नदी के उत्तरी तट पर सुसज्जित एवं अत्यन्त मनोरम यज्ञशाला का निर्माण करवाया तथा मन्त्रियों और सेवकों को सारी व्यवस्था करने की आज्ञा दे कर महाराज दशरथ ने रनिवास में जा कर अपनी तीनों रानियों कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा को यह शुभ समाचार सुनाया। महाराज के वचनों को सुन कर सभी रानियाँ प्रसन्न हो गईं |

((कथा को संक्षिप्त करने के लिए सीधे वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के पाँचवे सर्ग से ही आरम्भ किया गया है क्योंकि पहले चार सर्गों में भूमिका ही है अर्थात् देवर्षि नारद जी का ऋषि वाल्मीकि को रामायण की रचना के लिए प्रेरणा देना, बहेलिए के द्वारा क्रौंचवध और वाल्मीकि के हृदय में करुणा का उदित होना आदि आदि। यह भी बताना उचित होगा कि तुलसीदास जी ने श्री राम को ईश्वर मान कर रामचरितमानस की रचना की है किन्तु आदिकवि वाल्मीकि ने अपने रामायण में श्री राम को मनुष्य ही माना है और जहाँ तुलसीदास जी ने रामचरितमानस को राम के राज्यभिषेक के बाद समाप्त कर दिया है वहीं आदिकवि श्री वाल्मीकि ने अपने रामायण में कथा को आगे श्री राम के महाप्रयाण तक वर्णित किया है।))

तो अब आगे की कथाः

मन्त्रीगणों तथा सेवकों ने महाराज की आज्ञानुसार श्यामकर्ण घोड़ा चतुरंगिनी सेना के साथ छुड़वा दिया। महाराज दशरथ ने देश देशान्तर के मनस्वी, तपस्वी, विद्वान ऋषि-मुनियों तथा वेदविज्ञ प्रकाण्ड पण्डितों को यज्ञ सम्पन्न कराने के लिये बुलावा भेज दिया। निश्‍चित समय आने पर समस्त अभ्यागतों के साथ महाराज दशरथ अपने गुरु वशिष्ठ जी तथा अपने परम मित्र अंग देश के अधिपति लोभपाद के जामाता ऋंग ऋषि को लेकर यज्ञ मण्डप में पधारे। इस प्रकार महान यज्ञ का विधिवत शुभारम्भ किया गया। सम्पूर्ण वातावरण वेदों की ऋचाओं के उच्च स्वर में पाठ से गूँजने तथा समिधा की सुगन्ध से महकने लगा। समस्त पण्डितों, ब्राह्मणों, ऋषियों आदि को यथोचित धन-धान्य, गौ आदि भेंट कर के सादर विदा करने के साथ यज्ञ की समाप्ति हुई। राजा दशरथ ने यज्ञ के प्रसाद चरा को अपने महल में ले जाकर अपनी तीनों रानियों में वितरित कर दिया। प्रसाद ग्रहण करने के परिणामस्वरूप परमपिता परमात्मा की कृपा से तीनों रानियों ने गर्भधारण किया।

जब चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य, मंगल शनि, वृहस्पति तथा शुक्र अपने-अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे, कर्क लग्न का उदय होते ही महाराज दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से एक शिशु का जन्म हुआ जो कि श्यामवर्ण, अत्यन्त तेजोमय, परम कान्तिवान तथा अद्‍भुत सौन्दर्यशाली था। उस शिशु को देखने वाले ठगे से रह जाते थे। इसके पश्चात् शुभ नक्षत्रों और शुभ घड़ी में महारानी कैकेयी के एक तथा तीसरी रानी सुमित्रा के दो तेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ। सम्पूर्ण राज्य में आनन्द मनाया जाने लगा। महाराज के चार पुत्रों के जन्म के उल्लास में गन्धर्व गान करने लगे और अप्सरायें नृत्य करने लगीं। देवता अपने विमानों में बैठ कर पुष्प वर्षा करने लगे।

महाराज ने उन्मुक्त हस्त से राजद्वार पर आये हुये भाट, चारण तथा आशीर्वाद देने वाले ब्राह्मणों और याचकों को दान दक्षिणा दी। पुरस्कार में प्रजा-जनों को धन-धान्य तथा दरबारियों को रत्न, आभूषण तथा उपाधियाँ प्रदान किया गया। चारों पुत्रों का नामकरण संस्कार महर्षि वशिष्ठ के द्वारा कराया गया तथा उनके नाम रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखे गये।

आयु बढ़ने के साथ ही साथ रामचन्द्र गुणों में भी अपने भाइयों से आगे बढ़ने तथा प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय होने लगे। उनमें अत्यन्त विलक्षण प्रतिभा थी जिसके परिणामस्वरू अल्प काल में ही वे समस्त विषयों में पारंगत हो गये। उन्हें सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने तथा हाथी, घोड़े एवं सभी प्रकार के वाहनों की सवारी में उन्हें असाधारण निपुणता प्राप्त हो गई। वे निरन्तर माता-पिता और गुरुजनों की सेवा में लगे रहते थे। उनका अनुसरण शेष तीन भाई भी करते थे। गुरुजनों के प्रति जितनी श्रद्धा भक्ति इन चारों भाइयों में थी उतना ही उनमें परस्पर प्रेम और सौहार्द भी था। महाराज दशरथ का हृदय अपने चारों पुत्रों को देख कर गर्व और आनन्द से भर उठता था|

जय जय श्री राम

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